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Monday 18 December 2017

आदि शंकराचार्य का ‘‘अद्वैत एकात्म दर्शन‘‘

‘‘एकात्म यात्रा‘‘ के शुभारंभ पर विशेष
आदि शंकराचार्य का ‘‘अद्वैत एकात्म दर्शन‘‘

खण्डवा 18 दिसम्बर, 2017 -  धन्य है मध्यप्रदेश और उसका नगर ओंकारेश्वर जहां भारतीय अस्मिता और राष्ट्रीय चेतना के आधार स्तंभ, सांस्कृतिक एकता और मानव मात्र  में एकात्मता के उद्घोषक, अद्वैतवाद के अजेय धर्म योद्धा ने दीक्षा प्राप्त की। विडम्बना है कि मानव समानता का शंकर का यह ब्रह्मज्ञान केवल दर्शन शास्त्र का विषय बना रहा और संयोग है कि शंकर के अद्वैत को लोक जीवन में व्याप्त कर समरसता की नर्मदा प्रवाहित करने का बीड़ा श्री शिवराज सिंह ने उठाया है। देश की चारों दिशाओं में पीठ स्थापित कर राष्ट्र-समाज की चेतना को एकाकार करने का दिव्य प्रयत्न करने वाले युग पुरुष की मूर्ति स्थापना के लिए घर-घर से धातु संग्रह का अभियान लोक चेतना में समानता एवं एकता का भाव संचारित कर सकेगा।
कैसा संयोग है कि ज्ञान के पूर्ण चेतना पुरुष शंकर का जन्म केरल की पूर्णा नदी के तट पर बसे कालडी ग्राम में हुआ। पिता शिवगुरू और माँ आर्याम्बा थे और उन्होंने बालक को प्रभु प्रसाद मानकर उसका नाम शंकर-शम् अर्थात शांति और कर अर्थात् प्रदाता-शक्ति प्रदाता शंकर रखा।  अद्भुत स्मरण शक्ति से संपन्न बाल शंकर ने मात्र सात वर्ष की आयु में शास्त्रों का अध्ययन कर लिया और माँ की अनुमति से सन्यास ग्रहण कर आठ वर्ष की आयु में पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा लिए ब्रह्मज्ञानी गुरू की खोज में निकल पड़े। दुर्गम वनों, अलंध्य पर्वतों और ऊफनती नदियों को पार कर यह बाल योगी लगभग बारह सौ वर्ष पूर्व (792 ई.) मात्र बारह वर्ष की आयु में ओंकारेश्वर में नर्मदा तट स्थित गुरू गोविन्दपादाचार्य के आश्रम में पहुँचा। शंकर ने उस गुफा को निहारा जहाँ ऋषि ध्यान मग्न थे। भक्तिभाव से दण्डवत् कर गुरू गोविन्दपाद की स्तुति की और ब्रह्मस्वरूप को समझने के लिए शिष्य रूप में स्वीकार किए जाने की प्रार्थना की । गुरू ने प्रश्न किया-बालक तू कौन है?  और ज्ञानी शंकर ने संस्कृत में ही कैसा अद्भुत उत्तर दिया- स्वामी ! मैं  न तो पृथ्वी हूँ। न जल हूँ। न अग्नि हूँ। न वायु हूँ । न इसमें से कुछ भी हूँ। न ही कोई गुणधर्म हूँ। मैं इन्द्रियों में से कोई इन्द्रिय भी नहीं हूँ।  मैं तो अखण्ड चौतन्य हूँ। ज्ञानी शंकर के इस अनन्त साक्षी उत्तर से गुरू अभिभूत हो गए। गुरू ने दीक्षा दी और शंकर को अपना शिष्य बना लिया। गुरू को विश्वास हो गया कि बालक शंकर एक विशुद्ध आत्मा है और उन्होंने शंकर को मानवदेहधारी कैलाश-शंकर घोषित कर दिया। उन्हें सन्यास की दीक्षा दी और अधोलिखित महावाक्यों को विस्तार से समझाया-
(एक) प्रज्ञानं ब्रह्म- ब्रह्म विशुद्ध ज्ञान या चौतन्य है।
(दो) अहं ब्रह्मास्मि- मैं (जीव)ही ब्रह्म हूँ। 
(तीन) तत् त्वमसि-  तू भी वही है।
(चार) अयमात्मा ब्रह्म- यह आत्मा ब्रह्म है।
गुरू गोविन्दपाद ने शंकर को एकात्म-दर्शन का ज्ञान दिया। अहं की समाप्ति की अनुभूति कराई। शंकर के प्रश्न ‘कोडह्म्‘  ‘सोडहम्‘  उत्तर देकर द्वैध का शमन कर दिया। तभी शंकर को बोध हुआ-‘ब्रह्म सत्य-जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नायररू।‘
कैसी विलक्षण घटना है कि शंकर जहां ओंकारमय हुए उस पहाड़ी का प्राकृतिक आकार भी ओम् का है। आदि शंकराचार्य ने अपने ‘ईशावास्यभाष्य‘, में स्वयं कहा है- ‘ओम् ब्रह्म का प्रतीक है और ब्रह्म सत्य का अभिव्यंजक है।‘  इस प्रकार ओंकारेश्वर में आदि शंकर को पहली बार परम सत्य का आभास हुआ। यहीं पर शंकर ने पहली बार जाति आदि से सम्बद्ध सभी कुविचारों को छोड़ देने का उपदेश देते हुए ऊँ पर ध्यान लगाने की बात कही थी-
हित्वा जात्यादि सम्बन्धान्
वाचोडन्यारू सहकर्मभिरू।
ओमित्येवं सदात्यानं
सर्वशुद्धं प्रपद्यथ।‘‘
अर्थात् ‘‘जाति आदि सभी संबंधों को त्याग कर या तत्सम्बद्ध बातचीत या क्रियाओं को छोड़कर भारतवासी केवल आत्म-तत्व पर ध्यान दें और वह विशुद्ध तथा सर्वव्यापी तत्व हैं ‘‘ओम‘‘।
बारह वर्ष की अवस्था में सभी शास्त्रों के व्याख्याकार और सोलह वर्ष की अवस्था तक भाष्यों के प्रणेता आदि शंकराचार्य विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। केवल चार वर्ष की अवधि में उन्होंने ओंकारेश्वर में ही बादरायण के ब्रह्म सूत्रों, उपनिषदों तथा श्रीमद्भगवद् गीता पर भाष्य लिखा। मध्यप्रदेश की धरती से उन्होंने ‘‘अद्वैत सिद्धान्त‘‘ का प्रतिपादन किया और अपने सिद्धांतों के प्रतिपादन हेतु समस्त भारत का भ्रमण कर आलस्य, अकर्मण्यता और कदाचारमय प्रवृत्तियों से मानव मात्र को मुक्ति दिलाने का प्रयत्न किया। उनके ही कारण वेदों और उपनिषदों की दिव्य वाणी संपूर्ण भारत में गुंजायमान होने लगी। उन्होंने अंधविश्वासों से मुक्त कर वेदान्त का वह ज्ञान लोगों को दिया जिसमें ऊँच-नीच का कोई भाव विद्मान नहीं है। शंकर वेदान्त ने भारतीय समाज को उच्च आदर्शों एवं अच्छे उद्देश्यों के लिए प्रेरित किया। हमारे मध्यकालीन महान मानवतावादी भक्ति आंदोलन ने शंकर वेदान्त दर्शन के माध्यम से पुरोहितवाद की हृदयहीनता और निर्दयता से लोहा लिया। उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में हमारे महान क्रांतिकारियों, देशभक्तों ने गीता में व्याप्त वेदान्त दर्शन में आस्था की अनेक अग्नि परीक्षाओं का निडरता से हँसते हुए मुकाबला किया। विवेकानन्द जैसे आध्यात्मिक योद्धा हो अथवा स्वाधीनता आंदोलन के तिलक या गाँधी जैसे नेता, सभी वेदान्तीला अध्यात्म में अगाध विश्वास रखते थे।
गुरू के सान्निध्य में श्री शंकर ने चार वर्ष में अपना समूचा लेखन पूरा कर लिया। तभी वर्षा ऋतु प्रारंभ हो गई। पाँच दिनों तक ओंकारेश्वर में हुई मूसलाधार वर्षा से नर्मदा  में भीषण बाढ़ आ गई। गाँव डूबने लगे, मकान गिरने और मनुष्य एवं पशु बहने लगे। इस भीषण आपदा से उत्पन्न मानव पीड़ा से द्रवित शंकराचार्य ने माँ नर्मदा से की स्तुति में ‘‘नर्मदाष्कम्‘‘  का पाठ किया और बाढ़ उतरने लगी। गुरू गोविन्दपादाचार्य अपने शिष्य की यौगिक शक्ति देख कर संतुष्ट हुए और उन्हें बुलाकर चारों दिशाओं में वेदान्त के अद्वैत सिद्धांत प्रतिपादित करने की आज्ञा दी। सन्यासी को जनता पर आध्यात्म की वृष्टि करना चाहिए। सत्य का साक्षात्कार करने के बाद ‘‘तेरे‘‘ ‘‘मेरे‘‘ का भेद समाप्त हो जाता है। समूची सृष्टि ब्रह्मय है।  इसलिए सबके प्रति समता का भाव विकसित करना। अब तक श्री शंकर ‘‘सर्वज्ञत्व‘‘, की स्थिति तक पहुँच गए थे। उनकी दृष्टि में ब्रह्म तथा प्राणीमात्र में कोई भेद नहीं था। जाति प्रथा को वे ढकोसला मानते थे और प्राणी मात्र को ब्रह्म का स्वरूप देखने लगे थे। 
अपने गुरू से आशीर्वाद प्राप्त कर शंकर भारत यात्रा पर निकल पड़े। माधवाचार्य ने अपने शंकर दिग्विजय नामक ग्रन्थ में लिखा है कि अपनी दिग्विजय यात्रा में आचार्य शंकर काशी पहुँचे और वहाँ से प्रयाग होते हुए महिष्मति आए थे जहाँ उन्होंने मण्डन मिश्र जैसे उद्भट विद्वान को पराजित किया था। आचार्य शंकर ने उज्जयिनी में पाशुपत, जैन, कापालिक तथा वैष्णव मत के दिग्गज विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। अवन्ति देश में प्रसिद्ध विद्वान बाणभट्ट, मयूरभट्ट एवं दण्डी आदि के द्वैतमत विषयक अभिमान को खंडित किया। आचार्य ने अपनी यात्रा में महाकालेश्वर मंदिर में दर्शन किए और सभा मण्डप में विश्राम  किया। मण्डन मिश्र से शास्त्रार्य करने की बात काशी में मीमांसा दर्शन के प्रचण्ड विद्वान कुमारिल भट्ट ने आचार्य शंकर से कही थी। मण्डन मिश्र कर्म मीमांसा के उद्भट विद्वान एवं कुमारिल भट्ट के शिष्य थे। जब आचार्य शंकर महिष्मति पहुँचे और पनिहारिनों से मण्डन मिश्र के निवास का पता पूछा तो उन्होंने कहा कि जहाँ दरवाजे पर स्थित पिंजड़ों में निबद्ध शुक सारिकाएँ शास्त्रार्थ करती हुई प्रमाणत्व पर विचार करती हों, वही मण्डन मिश्र का निवास होगा। शंकर वहाँ पहुँचे और मण्डन मिश्र की पत्नी भारती निर्णायिका बनी।  मण्डन मिश्र ने वैदिक धर्म के प्रचार में हवन और अग्निहोत्र की अनिवार्यता बताई तो शंकर ने कहा- यज्ञ, हवन, संध्या आदि तो मन को शुद्ध करने के लिए साधन मात्र हैं। ये जीवन के साध्य नहीं हैं और साधन जीवन नहीं होता। ध्येय जीवन होता है। साधन तो देश और कालानुसार बदलते रहते हैं। मण्डन मिश्र के प्रश्नों के उत्तर में आचार्य शंकर ने कहा-समय के साथ संस्कार बदलते रहते हैं। किन्तु, संस्कार बह्म पदार्थ है। मूल वस्तु है आत्मा। चाहे कितना भी रूप परिवर्तन हो पर आत्मा नहीं बदलना चाहिए। अगर वैदिक धर्म की आत्मा नहीं बदली, तो साधना का रूप कुछ भी हो, वैदिक धर्म उन्हीं की नींव पर अमर रहेगा।
शास्त्रार्थ में परास्त होने के बाद मण्डन मिश्र ने आचार्य शंकर का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया और उन्हीं से सन्यास की दीक्षा लेकर सुरेश्वराचार्य के नाम से विख्यात हुए। आचार्य शंकर ने उन्हें स्वस्थापित चतुर्मठों में सर्वाधिक प्रमुख श्रंगेरी पीठ का प्रथम आचार्य नियुक्त किया।
मध्यप्रदेश के ओंकारेश्वर में दीक्षित आचार्य शंकर एक ऐसे महान संगठनकर्ता थे जिन्होंने पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने के लिए चारों दिशाओं में चार वेदों के आधार पर चार पीठों की स्थापना की। उन्होंने प्राचीन भारत के मर्म को छुआ और विविध मतावलंबियों को शास्त्रार्थ के माध्यम से विसंगतियों, रूढि़यों और अंधविश्वासों से मुक्त किया। प्राणी मात्र में ब्रह्म का निवास बताकर उन्होंने ऊँच-नीच के भेद को मिटाया, संपूर्ण राष्ट्र को एकात्म किया और कुण्ठाओं, कुरीतियों से मुक्त कर श्रेष्ठ जीवन एवं सत्य के पथ पर अग्रसर किया। तभी तो विद्वानों ने कहा- द्वापर में व्यास श्रेष्ठ आचार्य थे, तो कलियुग में श्री शंकर श्रेष्ठ आचार्य हैं।  अद्वैत सिद्धांत से द्वैत की दीवार को ध्वस्त कर, समानता एवं समरसता का मंत्र फूँक कर देश को एकात्म करने वाले धर्म योद्धा आदि शंकराचार्य के सिद्धांत जन-जीवन को अमृत पान कराते रहें, इस बात के प्रयत्न निरंतर होते रहना चाहिए।

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